श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय (Shri Madbhagwat Gita :: Short Introduction)
श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दुओं के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है।’ यह महाभारत के ‘भीष्मपर्व’ के अन्तर्गत दिए गए 23 से 40 तक के 18 अध्याय है। श्रीमद्भगवद्गीता की रचना सौन्दर्य युक्त छन्दों में हुई है, इसलिए गीता को ईश्वर-संगीत (The Lord's Song) कहा जाता है। महात्मा गाँधी ने गीता को विश्वजनीन माता (Universal Mother) कहा है, जिसका द्वार जो खटखटाता है उसके लिए हमेशा खुला रहता है। गीता धर्म, नीतिशास्त्र एवं तत्वविज्ञान की व्याख्या करती है तभी गीता को 'Gospel of Humanity' भी कहा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता यह विश्व के उन चुनिन्दा ग्रंथों में से है जो ईश्वरीय माने जाते हैं इसमें एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग, सांख्य योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। गीता में देह से पुरातीन आत्मा का निरूपण किया गया है। गीता की सबसे ख़ास बात यह है कि इसका अर्थ समझना तो सरल है परन्तु आशय समझना बहुत मुश्किल है। महाभारत काल से ही विश्वपटल के विद्वान मानते है कि मानवीय तौर पर ऐसी पुस्तक लिखना अकल्पनीय है।
गीता को उपनिषदों का सार भी कहा गया है। उपनिषद् गहन विस्तृत और विविध हैं जिनका अध्ययन करना साधारण मनुष्य के लिए बहुत मुश्किल है। गीता में उपनिषदों के सत्यों की सरल एवं प्रभावी प्रस्तुति है; इसलिए यह कहा जाता है कि समस्त उपनिषद गाय हैं, कृष्ण उसके दुहने वाले हैं, अर्जुन बछड़ा है और विद्वान गीता रूपी महान् अमृत का पान करने वाला है।
श्रीमद्भगवद्गीता एक अलौकिक आध्यात्मिक ग्रन्थ है जिसमें नैतिक-नियम, ब्रह्म-विद्या, तत्व-विचार और योग शास्त्र निहित है। गीता समस्त भारतीय दर्शन का निचोड़ मानी जाती है। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मशीलों का कर्त्तव्यबोध है, ज्ञानियों का ज्ञान है, योगियों का योग है, भक्तों की भक्ति है।
श्रीशंकराचार्य निवृत्तिमार्ग के समर्थक थे; उन्होंने गीता में ज्ञानयोग का प्रतिपादन किया; उनके अनुसार गीता में ज्ञान योग प्रधान है। श्रीरामानुजाचार्य के अनुसार गीता में भक्ति योग की प्रधानता है। लोकमान्य तिलक ने गीता को कर्मयोग का शास्त्र माना है। कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों का समन्वय गीता में हुआ है। तीनों का लक्ष्य एक ही है यथा ब्रह्म प्राप्ति या ईश्वर से मिलन। जिसकी जैसी श्रद्धा हो वह वहीं मार्ग का चयन कर अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
लोकमान्य तिलक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीता रहस्य’ में भगवद्गीता का परिचय देते हुए कहा है, जो उल्लेखनीय है- ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता हमारे धर्म ग्रन्थों में एक अत्यन्त तेजस्वी और निर्मल हीरा है। यह ग्रन्थ वैदिक धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब ढ़ाई हजार वर्श से सर्वमान्य तथा प्रमाण स्वरूप हो रहा है। इसका कारण भी उक्त ग्रन्थ का महत्व ही है।’’’
श्रीमद्भगवद्गीता दुःख निवृत्ति और सुख-समृद्धि के मार्ग प्राप्त करने के साधन है। कर्म-अकर्म, जन्म-मरण, आत्मा-परमात्मा, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, जय-पराजय, उतार-चढ़ाव आदि सम्पूर्ण तथ्यों का तात्विक विवेचन है। आत्मज्ञान, मनोविज्ञान, योग विज्ञान की साधना है, अज्ञान मुक्ति के उपाय एवं समाधान है।
श्रीमद्भगद्गीता का रचना काल:
श्रीमद्भगद्गीता एक पुरातीन ग्रन्थ है। गीता के रचना काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। प्रोफेसर जीनाने फोलेवर के अनुसार गीता का रचना काल दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व है। गीता विद्वान काशीनाथ उपाध्याय ने महाभारत, ब्रह्म सूत्रों एवं अन्य ग्रंथों के अध्ययन उपरान्त निष्कर्षतः माना है कि यह ग्रन्थ चौथी-पांचवी सदी ईसा पूर्व में रचित है।’’ महर्षि पाणिनी द्वारा रचित व्याकरण पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व मानी जाती है। महाभारत एक काव्य शास्त्र है जिससे सीधे अर्थों में कह सकते है कि यह महर्षि पाणिनी द्वारा रचित व्याकरण सूत्रों के बाद ही लिखी गयी है; इस सन्दर्भ से भी यह चौथी-पांचवी सदी ईसा पूर्व ही अनुमानित प्रतीत होती है।
भारतीय परम्परा के अनुसार गीता इससे बहुत अधिक प्राचीन रचना है। श्रीमद्भगद्गीता के 18 अध्याय महाभारत के भीष्म-पर्व के 23 से 40 तक के अध्याय है; जिसमें 700 श्लोक हैं। महाभारत के रचयिता व्यासजी हैं और व्यास जी के अनुसार गीता के सम्बोधनकर्त्ता श्रीकृष्ण हैं।
विश्व में प्रसिद्ध भारतीय ज्योतिष विज्ञान के अनुसार, महाभारत में जगह-जगह वर्णित नक्षत्रों और ग्रहों के कालातीत कम्प्युटराइज्ड तुलनात्मक अध्ययन से डॉ. वर्टक ने निष्कर्ष निकाला कि महाभारत युद्ध की तारीख 16 अक्टूबर 5561 वर्ष ईसा पूर्व था, इस तारीख की विद्वानों द्वारा जांच की गई और इसकी पुष्टि भी की गई।’ इसके उपरान्त व्यास जी ने महाभारत नाम से प्रसिद्ध महाकथा को कब लिखा; इसका अंदाजा लगाना आज भी एक चुनौति है; अर्थात महाभारत के युद्ध की तिथि के नजद़ीक तो हम पहुँचते है परन्तु इससे श्रीमद्भगवद्गीता का रचना काल सिद्ध नहीं होता; यह आज भी रहस्य है।
श्रीआदिशंकराचार्य से लेकर इस देश के वर्तमान महान विचारक, समाज सुधारक, शिक्षक तथा राजनैतिक चिन्तक गीता की शिक्षाओं को जीवन का सर्वश्रेष्ठ पथप्रदर्शक मानते रहे हैं और यह ग्रन्थ सदियों से विद्वानों का ही नहीं बल्कि जन-साधारण का भी उत्कृष्ट रूप से मान्य ग्रन्थ है।
श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि
महाभारत में कौरवों की हठधर्मिता के कारण, पाण्डवों के समक्ष धर्मयुद्ध की विवशता के साथ ही युद्ध की विकटता सामने आती है। युद्ध के लिए चयनित स्थान कुरूक्षेत्र की भूमि में जब दोनों सेनाएं अपने-अपने महावीरों के साथ युद्ध के लिए आतुर खड़ी है, दोनों ओर रण दुदुंभी बच रही है और भयंकर शोर हो रहा है; तभी श्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन, युद्ध भूमि पर आए हुए अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर; ‘युद्ध में मुझे अपने ही प्रिय बन्धु-बान्धवों, आत्मीयजनों और सगे सम्बन्धियों की हत्या करनी होगी यह सोचते हुए’, अर्जुन का मन उत्साहविहीन हो जाता है वह परिणाम सोचकर निराश हो जाता है और उसके अस्त्र-शस्त्र हाथ से छूट पड़ते है। अर्जुन का चित्त भयंकर विषाद से घिर जाता है और वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ (अज्ञान की स्थिति में अपने वर्तमान कर्म से विमुख होना) होकर रथ में बैठ जाता है। विषादग्रस्त अर्जुन के इस तरह बैठने पर ही गीता के सम्बोधन की पृष्ठभूमि बनती है और निश्चित दृष्टिकोण के साथ अर्जुन के सभी प्रश्नों का, श्रीकृष्ण ज्ञान के प्रत्येक स्तर से जवाब देते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करते है। श्रीमद्भगवद्गीता प्रश्न-उत्तर के रूप में रचित काव्य शास्त्र है।
श्रीमद्भगवद्गीता ‘योग’ का भी एक अनूठा ग्रन्थ है। इसके समस्त 18 अध्यायों के साथ योग शब्द जुड़ा हुआ है, जिनका संक्षिप्त परिचयात्मक विवरण निम्न प्रकार समझा जा सकता है-
क्र.सं. अध्याय का नाम श्लोकों की संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 47
2. सांख्य योग 72
3. कर्म योग 43
4. ज्ञानकर्म सन्यास योग 42
5. कर्म सन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 47
7. ज्ञान विज्ञान योग 30
8. अक्षरब्रह्म योग 28
9. राजविद्या राजगुह्ययोग 34
10. विभूति योग 42
11. विश्वरूप दर्शन योग 55
12. भक्ति योग 20
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग 34
14. गुणत्रय-विभाग योग 27
15. पुरूषोत्तम योग 20
16. देवासुरसम्पद् विभाग योग 24
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 28
18. मोक्ष सन्यास योग 78
कुल श्लोक 700
अध्यायवार संक्षिप्त परिचय
1. अर्जुन विषाद योग
प्रथम अध्याय में, दोनों सेनाओं के प्रधान शूरविरों की गणना और सामर्थ्य का वर्णन हुआ है। दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन मिलता है। युद्ध से पूर्व, अर्जुन श्रीकृष्ण को निवेदन करता है कि हे अच्युत, मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए जिससे मैं इन विपक्षी योद्धाओं का भलीप्रकार निरीक्षण कर सकूं। इस समय अर्जुन दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा होकर युद्ध के लिए आतुर दोनों सेनाओं के महारथियों को देखकर मोह से ग्रस्त हो जाता है, ये सभी तो मेरे दादा, सम्बन्धि, गुरु व भाई है। मैं इन सभी से युद्ध कैसे करूँगा। इस प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वह हताश और निराश होकर शस्त्र त्यागकर रथ में बैठ जाता है। अर्जुनविषाद योग नामक प्रथम अध्याय मंे अर्जुन की मनोस्थिति का मार्मिक वर्णन है।
2. साँख्य योग (ज्ञान योग)
साँख्य योग नामक द्वितीय अध्याय में योगीराज श्रीकृष्ण, अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि अर्जुन युद्धक्षेत्र में आकर तुम कैसी कायरों वाली बातें कर रहे हो; क्षत्रिय को यह शोभा नहीं देता, यह दुर्बलता छोड़कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओं। अर्जुन तैयार नहीं हुआ, यह जानकर श्रीकृष्ण आगे सांख्य दर्शन के अनुसार समझाते हुए कहते हैं कि तुम यह समझते हो कि ‘मैं पहले नहीं था या तुम नहीं थे या आगे नहीं रहेंगे’, ऐसा नहीं है। यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेता है, न मरता है। यह अजन्मा, नित्य सनातन और पुरातन है। यह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। जो इसे अविनाशी, अजन्मा, नित्य समझता है। वह कैसे किसको मारता या मरवाता है। जैसे पुराने वस्त्र को उतार कर व्यक्ति नये वस्त्रों को धारण करता है और दुःखी नहीं होता। उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर पुनः नया शरीर धारण करता है। यह आत्मा अजर, अमर है। शस्त्र इसे काट नहीं सकता, आगे इसे जला नहीं सकती। पानी इसे गला नहीं सकता, हवा इसे सुखा नहीं सकती। अतः इसके लिए शोक की आवश्यकता नहीं है। यदि तू यह धर्मयुद्ध नहीं करेगा तो पाप तथा अकीर्ति प्राप्त करेगा। इसलिए तू केवल निष्काम भाव से कर्म कर। तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल तो कर्म के अनुसार स्वतः ही मिल जायेगा। आगे स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण बताते हुए आगे कहते है; हे अर्जुन! जो अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्नता प्रकट नहीं करता तथा प्रतिकूल परिस्थिति में दुःखी नहीं होता। सब कामनाओं को त्यागकर, ममता रहित, अहंकार रहित होकर विचरता है, वही शान्ति को प्राप्त होता है। इसी को प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
3. कर्म-योग
कर्मयोग नामक तृतीय अध्याय में, श्रीकृष्ण कर्मयोग और ज्ञानयोग के अनुसार अनासक्तभाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण करते हैं। प्रत्येक प्राणी क्षणभर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। आसक्ति छोड़कर कर्म करने से कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ता, यही निष्काम कर्मयोग है। इस अध्याय में यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है। ज्ञानवान मनुष्य और भगवान के लिए भी लोक-संग्रहार्थ कर्मों को बताते है। गीता में कहा गया है कि श्रेष्ठ पुरूष जो आचरण करता है, वैसा ही अन्य लोग भी करने लगते हैं; जैसा श्रेष्ठ पुरूष मार्ग चुन लेता हैं, वैसा ही संसार के अन्य लोग उसका अनुसरण करते है। अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण बताते हुए राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा देते है। इसलिए निष्काम कर्म योग के मार्ग का अनुसरण ही श्रेष्ठ है। जिस पर चलकर मनुष्य लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है।
4. ज्ञानकर्म सन्यास योग:
ज्ञानकर्म सन्यास योग नामक इस चतुर्थ अध्याय में अर्जुन को योगी महात्मा पुरूषों के आचरण और उनकी महिमा का वर्णन करते है। श्री कृष्ण कहते है-अर्जुन, अब तक मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं, जिन्हें मैं जानता हँू, तुम नहीं जानते। जब-जब धर्म की हानि तथा अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं धर्म स्थापना की दृष्टि से सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों को दण्ड देने के लिए उपयुक्त रूप से प्रकट होता हँू। फल सहित अलग-अलग यज्ञों का वर्णन और ज्ञान की महिमा बतलाते है।
5. कर्म सन्यास योग:
इस अध्याय में सन्यास तथा कर्मयोग का वर्णन हुआ है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा बताते हुए कहते है कि कर्म सन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारी हैं। इन दोनों में कर्म सन्यास से कर्मयोग सरल होने के कारण श्रेष्ठ है। साँख्य तथा योग दोनों को अलग नहीं समझना चाहिए। जो व्यक्ति सब कामनाओं से रहित होकर सब कर्मों को प्रभु को अर्पित कर देता है, वह जल में कमल के पत्ते की भांति डूबता नहीं है; अर्थात् पाप से संलिप्त नहीं होता। इस अध्याय में भक्ति सहित ध्यान योग का वर्णन भी समाहित है।
6. आत्मसंयम योगः
इस अध्याय में कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण बताये गये है। आत्म उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण भी उद्धरित है। विस्तार से ध्यान-योग का वर्णन करते है। ध्यान योग लिए उपयुक्त स्थान आदि के बारे में बताया है कि ऐसे शुद्ध स्थान में बैठकर जहाँ क्रमशः कुशा, मृगछाल, वस्त्र बिछे हों, वह स्थान न अधिक ऊँचा हो न नीचा अर्थात् समतल स्थान पर आसन लगाकर बैठना चाहिए एवं मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए अभ्यास करें। शरीर, सिर तथा गर्दन सीधी तथा स्थिर रखें, दृष्टि नासिकाग्र एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भयरहित होकर साधना (ध्यान) करें। श्रीकृष्ण कहते है कि यह योग (ध्यान) न अधिक खाने, न भूखा रहने, न बहुत सोने, न अधिक जागने वालों का सिद्ध होता है, बल्कि नियमित आहार-विहार करने, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने, यथा योग्य सोने व जागने वालों को ही सिद्ध होती है। उसके बाद मन को वश में या स्थिर करने के दो उपाय बताते है ‘अभ्यास और वैराज्ञ’ क्योंकि असंयमी मन वाला ध्यान योग को प्राप्त नहीं हो सकता। साधना करके जो योगी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता, वह पुनः अच्छे कुल में जन्म लेकर साधना करके कल्याण मार्ग पर बढ़ जाता है, वह नाश को प्राप्त नहीं होता। योगी, तपस्वी से अधिक श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से अधिक श्रेष्ठ है, सकाम कार्यरत लोगों से भी श्रेष्ठ है, और जन-साधारण को योग करने के लिए प्रेरित करते है।
7. ज्ञानविज्ञान योग:
यहाँ ईश्वर व जगत सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान पर चर्चा की गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्वसे अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी यह प्रकृति (अपरा) है; जो जड़ है। दूसरी जीवरूपा चेतन प्रकृति (परा) है; जो जगत को धारण किये है। सम्पूर्ण जगत इन दोनों से ही उत्पन्न होता है। आगे श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मैं ही सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हँू, मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), संकट निवारण के लिए भजने वाला आर्त, मुझे यथार्थरूप से जानने की इच्छा से भजने वाला जिज्ञासु और ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते है। पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जान सकता। ज्ञानी ही श्रेष्ठ है, जिनका मोह नष्ट हो गया है, वे ज्ञानी ही मुझे ब्रह्म रूप में भजते हैं और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।
8. अक्षरब्रह्म योग:
इस अध्याय में श्रीकृष्ण ब्रह्म, अध्यात्म, धर्म आदि से सम्बन्धित अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि परम अक्षर ब्रह्म है, अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मक ‘अध्यात्म’ नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है वह ‘कर्म’ नाम से कहा गया है। उत्पत्ति, विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरूष अधिदैव हैं, और देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हँू। जो पुरुष अन्तकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
9. राजविद्या राजगुह्ययोग:
इस अध्याय में दुःखरूप संसार से मुक्त होने का उवाच है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कल्पान्त में सभी भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं तथा कल्पारम्भ में उनको फिर उत्पन्न करता हँू। मेरे द्वारा प्रेरित प्रकृति द्वारा ही समस्त संसार उत्पन्न होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि प्रेमपूर्वक अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हँू। इसलिए हे अर्जुन! तू जो करता है, खाता है, हवन करता है, दान देता है, जो तप करता है, वह सब कुछ मुझे अर्पित कर दे। इससे तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा।
10. विभूति योग:
विभूति योग नामक इस अध्याय में भगवान कहते है कि निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मनका निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति-ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं। इससे आगे भगवान अपनी विभूति, योग शक्ति तथा प्रभाव सहित भक्ति का कथन करते हुए कहते हैं कि जो पुरूष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्व से जानता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं देवताओं तथा महर्षियों का आदि कारण हँू, जो मुझे अजन्मा, अनादि और ईश्वर रूप में जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। सबकी उत्पत्ति का कारण ‘मैं’ ही हँू। अर्जुन द्वारा विभूति तथा योगशक्ति देखने की इच्छा प्रकट करने पर श्रीकृष्ण द्वारा दिव्यविभूतियों को दिखाया जाता है।
11. विश्वरूप दर्शन योग:
इस अध्याय में भगवान के दिव्यरूपों का वर्णन है। अर्जुन को दिव्यदृष्टि देकर भगवान् अपने रूपों का दर्शन कराते हैं। अनेक मुख, अनेक नेत्र दिव्य आभूषणों से युक्त, दिव्यशस्त्रों से युक्त, दिव्य माला, वस्त्र, दिव्य गंध, दिव्य लेप एवं सब ओर मुख किये हुए हैं, पुलकित शरीर अर्जुन श्रद्धा-भक्ति पूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके हाथ जोड़़कर बोले कि मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों, भूतों, ब्रह्मा, महादेव आदि अनेक भुजाओं, उदर, मुख, नेत्रों तथा रूपों वाला देख रहा हँू जिसका आदि, मध्य तथा अंत नहीं दिखाई पड़ता है। दिव्य व भव्य रूप देखकर अर्जुन कहता है कि आप ही जानने योग्य है, आप ही परम अक्षर, अविनाशी परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं, एक आप ही तो अविनाशी सनातन पुरूष हैं। ऐसा मेरा मानना है। वे सभी धृतराष्ट्र-पुत्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि आपके मुख में समा रहे हैं। आप उग्र रूप वाले कौन है, श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोकों का नाश करने वाला ‘मैं’ महाकाल हँू। युद्ध में सभी प्रतिपक्षी योद्धा तुम्हारे द्वारा न मारे जााने पर भी मारे जाएंगे। क्योंकि ये मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग।
12. भक्ति योग:
भक्ति-योग नामक इस द्वादश अध्याय में साकार व निराकार उपासकों की श्रेष्ठता का वर्णन किया गया है। भगवान कहते हैं कि यदि तू चित्त को मुझ में लगाने में असमर्थ है तो अभ्यास कर, यदि तू अभ्यास में भी असमर्थ है तो मेरे लिए कर्म कर। इस प्रकार मेरे लिए कर्म करता हुआ मुझे ही प्राप्त हो जाएगा। मर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से, ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से कर्मफल त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि उससे तुरन्त शान्ति प्राप्त होती है। जो न भी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है-वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है।
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग:
त्रयोदश अध्याय में ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ’ का वर्णन करते हुए भी भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है और इसे जो जानता है, उसको ज्ञानी जन ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते है हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जान और ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ’ को अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरूष का जो तत्व से जानता है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मानना है। सब चराचर भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (प्रत्यक्ष रूप में जानने में न आने वाला) है तथा अति समीप में और दूर में भी वही स्थित है। संसार उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति है, सुख-दुःख के भोक्तापन में हेतु पुरूष है। जो संसार में जीव उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होते हैंे।
14. गुणत्रय-विभाग योग:
यहाँ श्रीकृष्ण ने प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। प्रकृति ही परमेश्वर की योनि (गर्भाधन का स्थान) है, और मैं उस योनि में चेतन समुदाय रूप गर्भ को स्थापन करता हँू। उसी जड़ चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है (गीता 14/3)। प्रकृति गर्भधारण करने वाली माँ तथा परमेश्वर बीज स्थापन करने वाला पिता है। सत्व, रज व तम- ये तीनों प्रकृति के गुण हैं। सत्व गुण सुख में, रजोगुण क्रिया में तथा तमोगुण प्रमाद में लगता है। सत्व की वृद्धि चेतना व ज्ञान, रजोगुण की वृद्धि से लोभ अशान्ति व भोगलिप्सा तथा तमो-गुण की वृद्धि से अन्तःकरण व इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य, कर्मों में अप्रवृत्ति, प्रमाद और निद्रा उत्पन्न होती है। जब द्रष्टा इन गुणों को ही कर्ता मानता है तथा इन तीनों गुणों से दूर सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को तत्व से जानता है तो वह जन्मादि बन्धनों को मुझे ही प्राप्त हो जाता है।
15. पुरूषोत्तम योग:
इस पंचदश अध्याय में संसार वृक्ष, भगवत्प्राप्ति के उपाय, परमेश्वर के स्वरूप एवं क्षर, अक्षर तथा पुरूषोत्तम के स्वरूप का वर्णन है। ऊपर मूल, नीचे शाखा वाले पीपल के संसार रूपी वृक्ष को अविनाशी कहते हैं। जिसके पत्ते वेद हैं, उसको जो तत्व से जानता है वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। यहाँ मोहरूपी संसार स्वरूप अविनाशी वृक्ष का वर्णन किया गया है। इस संसारवृक्ष को वैराग्य रूप शस्त्र से काटकर परमपद अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। जिनकी संसार में आसक्ति, पूर्ण रूप से नष्ट हो गई है, वे सुख-दुःख स्वरूप द्वन्द्वों से छुट जाते हैं। स्वयं प्रकाश परमपद् को सूर्य, अग्नि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते। इन सूर्य, चन्द्र, अग्नि में जो तेज है, वह उस परमेश्वर का ही है। प्राणियों के शरीर क्षर, जीवात्मा अक्षर तथा अविनाशी परमेश्वर पुरूषोत्तम है।
16. देवासुरसम्पद् विभाग योग:
मुख्यतया इस अध्याय में दैवी-आसुरी सम्पत्तियों का वर्णन किया गया है। निर्भयता, निर्मलता, दान, इन्द्रियदमन, भवगान, देव तथा गुरुजनों की पूजा, वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन, भगवन्नाकीर्तन रूप स्वाध्याय, तप, अन्तकरण की सरलता, लोक व शास्त्र विरूद्ध आचारण में लज्जा, तेज, क्षमा, धैर्य, शुचिता शत्रुभाव का अभाव आदि दैवीसम्पदा कहलाती हैं। दम्भ, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञानता आदि आसुरी सम्पदा कहलाती है। दैवीय सम्पदा मुक्ति के लिए है और आसुरी सम्पदा संसार में बांधने का कार्य करती है। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही प्राप्त करता है। कर्तव्य व अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है अतः शास्त्रानुकूल व्यवहार करना चाहिए।
17. श्रद्धात्रय विभाग योग:
इस श्रद्धात्रय विभाग योग नामक सप्तदश अध्याय में सात्विक, राजसी एवं तामसिक श्रद्धा का वर्णन किया गया है। शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालोें का वर्णन, आहार, यज्ञ, तप व दान के पृथक भेदों का वर्णन किया गया है। सात्विक पुरूष देवों को, राजसिक राक्षसों-यक्षों को तथा तामसिक भूत-प्रेतों को पूजते हैं; ऐसा वर्णन किया गया है। जो दम्भ, कामना आदि से तप करते हैं, वे असुर स्वभाव के होते हैं। आहार भेद भी सात्विक आदि भेदांे से तीन प्रकार का तथा यज्ञ, तप, दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। जो जैसी वृत्ति का होता है, वो वैसा ही प्रकार अपनाता है। इस अध्याय के अन्तिम श्लोकानुसार श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह सब ‘असत्’ कहलाता है; इसलिए वह न तो लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।
18. मोक्ष सन्यास योग:
श्रीमद्भगवद्गीता के अन्तिम अध्याय में त्याग, पराभक्ति, निष्काम-कर्मयोग, साँख्य सिद्धान्त, वर्ण-धर्म तथा शरणागति का वर्णन किया गया है। यहाँ कहा गया है कि यज्ञ, दान व तप त्याज्य कर्म नहीं है, अतः इन्हें अवश्य करना चाहिए। कर्मफल का त्याग करना उचित है, कर्मों की सिद्धि में साँख्य-शास्त्र ने पाँच हेतु बताए हैं- अधिष्ठान (शरीर), कर्त्ता (जीवात्मा), करण (इन्द्रियाँ), चेष्टाएँ तथा देव। ज्ञान-अज्ञान, कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने वाली बुद्धि सात्विक, ठीक-ठाक न जानने वाली बुद्धि राजसी तथा केवल अज्ञान-अधर्म को ही ठीक समझने वाली बुद्धि तामसी कहलाती है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तू मुझमें मन वाला होकर, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा। सभी धर्मों का अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों का मुझमें त्यागकर, तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर। अर्जुन कहते है कि हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशय रहित हो गया हँू। अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की मानसिक स्थिति को जानकर, उचित दृष्टिकोण के साथ 18 अध्यायों में अर्जुन के सभी प्रश्नों का क्रमवार निवारण करते हुए, जन-साधारण के कल्याण हेतु भी वेदों, उपनिषदों, संहिताओं और ब्रह्मसूत्रों के सार का वर्णन किया है जो साधारण मनुष्यों के बस की बात नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता के शब्दों को तो आसानी से समझा जा सकता है पर आशय को समझना कठिन है। जिज्ञासु पाठक जिस मनोवृत्ति के साथ इस पवित्र ग्रन्थ का अध्ययन करता है; तो उसे अपने प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। भारतीय चिन्तन का सार श्रीमद्भगवद्गीता पुरातन काल से वर्तमान तक एवं भविष्य में भी प्रासंगिक रहते हुए जनकल्याण के हेतु उपयोगी रहेगी। श्रीमद्भगवद्गीता विश्व के श्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रंथों में सर्वोच्च स्थान रखती है। (इति)
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