क्या हैं मानसिक रोग ? (भाग-1)
आज के व्यक्तिपरक सम्बन्ध, सामाजिक दायित्वहीनता, व्यवस्थता, नैतिक पतन आदि ने व्यक्ति को अकेला कर दिया है। अकेलेपन की स्थिति में व्यक्ति में मानसिक रोगों को पनपने की उर्वरा भूमि तैयार हो जाती है। जिसमें वह अपने इस बुने जाल में फंसकर अपने व्यक्तित्व का ह्रास कर लेता है। वैदिक साहित्य में भी मानसिक रोगांे का वर्णन प्राप्त होता है। यथा -
वैदिक साहित्य के अनुसार-
वेद में मानसिक रोगो के कारण रूप में स्रोक, मनोहा, खन, निर्दाह, आत्मदूषि तथा तनूदूषि का वर्णन किया गया है, इन्हीं के कारण व्यक्ति निराशा, कुन्ठा, अवसाद आदि रोगों से ग्रस्त हो जाता है।
‘‘स्रोको मनोहा खना निर्दाह आत्मदूशिस्तनूदूशिः ठदं तमति सृजामि तं माभ्यावनिधि।’’
(अथर्ववेद 16/01/1/3-4)
1. स्रोक
ऐसे विचार जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले और कष्ट देने वाले है सा्रेक कहलाते है। तामसिक वृत्ति का व्यक्ति ऐसे विचारों का जन्मदाता हैं, उसे दूसरों को कष्ट पहुँचाकर सुख की अनुभूति होती है, अशुभ विचार, दुर्भाव, अशिव संकल्प आदि इसी प्रकार से समाहित होते है।
2.मनोहा
मन को मारने वाला, उत्साहहीन, कायर, अधीर, अस्थिर चित व्यक्ति को मनोहा कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति कोई भी कार्य प्रारम्भ ही नहीं करता। अवसाद और निराशा की स्थिति उसे किसी कार्य को करने के योग्य नहीं छोड़ती।
3. खन
अपने कार्यों द्वारा अपनी ही हानि करना खनः कहलाता है। दीनता, हीनता, कुण्ठा, निराशा, असंयम, अनाचार आदि के करण व्यक्ति सदा दुखी बना रहता है। ऐसी तामसिक भावना रखने वाला स्वयं अपने भले-बुरे का भी निर्णय नहीं कर सकता। वह आत्मघाती प्रवृत्ति वाला होकर अपना सत्यानाश करने में भी अपना भला समझता हैं तथा उसके हितकारी कार्य भी उसे अपने विपरीत जान पड़ते हैं। भ्रम से ग्रस्त व्यक्ति की स्थिति है।
4. निर्दाह
दाह करने से तात्पर्य है। ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, क्रोध, कटुता, असहिष्णुता आदि की भावना। व्यक्ति को चाहे अपना लाभ हो या न हो, दूसरे का हित नहीं देखा जाता। अपनी अधिक सम्पत्ति भी दूसरे की सम्पत्ति के सामने कष्टदायी हो जाती है। क्योंकि असहिष्णुता के कारण उसे दूसरे की सम्पत्ति से ईर्ष्या (द्वेष) जलन उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण अपनी सुख समृद्धि से भी उसे सुख नहीं मिल पाता। वह भाव चिंता, उद्वेग, व्यग्रता, कुण्ठा, ईर्ष्या, आदि उत्पन्न कर उसे मानसिक असंतोष देता रहता हैं जिसके कारण वह जलता रहता है।
5. आत्मदूषि
स्वयं को दोष देना, अपराधबोध अवसाद, निराशा, कुष्ठा, हतोत्साह आदि की स्थिति इसके अंतर्गत आते है। यह आयुर्वेद के प्रज्ञापराध के समकक्ष मानना चाहिए। अपराधबोध से ग्रस्त व्यक्ति पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ स्वयं को संसार में विमुख कर निराशा और कुष्ठा में जीवन जीता है। कभी-कभी यह भाव अधिक उग्र होने पर आत्महत्या तक कर लेता है।
6. तनुदूषि
शरीर को दूषित करने वाले कार्य करना, जैसे - भूखा रहना, शोक, क्रोध उन्माद आदि की स्थिति में शरीर को कष्ट देना, अधिक परिश्रम करना, अंग भंग करना, आदि व्यक्ति की विभक्त मनस्वता के परिचारक है। ऐसी स्थिति मंें यदि उसे नहीं संभाला जाता तो वह उन्मत होकर कुछ भी कर सकता है। जैसे - आत्महत्या या शरीर के किसी अंग को काट देना या किसी की हत्या कर देना। इन दोषों से ग्रस्त व्यक्ति संसार में रहकर सामान्य जीवनयापन नहीं कर सकता। समाज से पृथक रहना। उसकी निवृति बन जाती है। या समाज उसे स्वीकार नहीं करता।
क्रमशः.... भाग दो
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