योग के लक्षण
श्रीमद्भगवत गीता संसार में प्रतिष्ठित एवं प्रसिद्ध ग्रंथ है इसका अनुमोदन यह बात करती है कि गीता का अनुवाद विश्व में सर्वाधिक भाषाओं में हुआ है। गीता में सभी प्रकार की विधाएं विद्यमान है। मनुष्य जीवन के मानसिक अवस्थाओं का वर्णन गीता में हुआ है। गीता में सभी विषयों को योग के साथ जोड़कर विशेषता प्रदान की गई है। अध्याय दो में ज्ञानयोग व कर्मयोग का वर्णन किया गया है। दोनों ही के मार्ग अलग-अलग प्रतीत होते है परन्तु मंजिल एक ही है। ज्ञानयोग एवं कर्म योग की विधियाँ अलग-अलग है पर फल में अन्तर नहीं है। सांख्य योगी कर्तापन का त्याग कर परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है जबकि निष्काम कर्मयोगी अपने को कर्ता मानता हुआ कर्मफलों को परमात्मा को अर्पण करता जीवन व्यतीत करता है। आसक्ति रहित कर्मयोगी परमात्मा को अपने से भिन्न मानता है जबकि सांख्य योगी परमात्मा को ही अपनेमें स्थित मानकर अभेद रूप में स्वीकार करता है। श्रीकृष्ण कहते है ज्ञानयोग व कर्मयोग का फल समान है। कर्मबन्धन से मुक्ति के दो उपाय है एक तो कर्मों का त्याग कर दो जो सम्भव नहीं है और दूसरा है कर्मयोग का। श्रीकृष्ण अकर्म से कर्म को ही अच्छा व सत्यस्वरूप स्वीकारते है और अर्जुन को ज्ञानयोग के बाद कर्मयोग का उपदेश करते है। अध्याय दो में श्लोक 11 से 30 तक ज्ञानयोग अर्थात सांख्य योग का प्रतिपादन है जबकि श्लोक संख्या 39 से 53 तक कर्मयोग की।
गीता में जगह-जगह योग और योगी शब्द का उपयोग हुआ है। योग क्या है? कैसे करते है? कहाँ करना चाहिए? कब करना चाहिए? आदि का सविस्तार उल्लेख हुआ है। जिनका अध्ययन हम आगे आने वाले अध्ययों में करेंगे। अध्यया दो में ज्ञानयोग एवं कर्मयोग द्वारा मनुष्य की मानसिक स्थितियों के लक्षणों को हम योग के लक्षण के रूप में मानकर देख सकते है; क्योंकि यहीं मनुष्य देह और बुद्धि ही योग का क्षेत्र है यथा -
योग (ज्ञानयोग एवं कर्मयोग) के लक्षण -
1. योग मनुष्यों को कर्तव्य बोध कराता है।
2. योग कर्म की विशेषता सिखाकर भय मुक्त करता है।
3. योग मनुष्यों को आसक्ति रहित बनाता है।
4. योग समत्व भाव को उत्पन्न करता है।
5. योग कर्म बन्धनों से मुक्ति दिलाता है।
6. मोहमाया अर्थात राग-द्वेष, क्रोध, शोक, सुख-दुःख से मुक्ति दिलाता है।
7. योग आत्मा की अमरता बताता है।
8. योग पुनर्जन्म का विचार प्रतिष्ठित करता है।
9. योग कर्मो में कुशलता दिलाता है।
10. ज्ञानयोग, कर्तापन का उन्मूलन सिखाता है।
11. कर्मयोग, कर्तापन को प्रष्ठित करता है।
12. ज्ञानयोग एवं कर्मयोग दोनों ही मोक्ष कराते है।
लक्षणों का वर्णन
1. योग, मनुष्यों को कर्तव्य बोध कराता है -
मोह से ग्रसित अर्जुन को सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण कहते है- इस असमय में यह मोह किस हेतु से तूझे प्राप्त हुआ है; क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरूषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है। हे अर्जुन! नपंुसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। भगवान श्रीकृष्ण ऐसे समझाते हुए, संसार के मनुष्यों को भी समयानुसार, स्थिति अनुसार एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों को करना चाहिए उनसे विमुख नहीं होना चाहिए। यहाँ योग के माध्यम से मनुष्यों को कर्तव्य बोध कराते हुए, कर्तव्य निभाने का उपदेश करते है।
2. योग, भय मुक्त करता है-
3. योग, मनुष्यों को आसक्ति रहित बनाता है।
4. योग समत्व भाव को उत्पन्न करता है।
5. योग कर्म बन्धनों से मुक्ति दिलाता है।
6. मोहमाया अर्थात राग-द्वेष, क्रोध, शोक, सुख-दुःख से मुक्ति दिलाता है।
7. योग आत्मा की अमरता बताता है।
8. योग पुनर्जन्म का विचार प्रतिष्ठित करता है।
9. योग कर्मो में कुशलता दिलाता है।
10. ज्ञानयोग, कर्तापन का उन्मूलन सिखाता है।
11. कर्मयोग, कर्तापन को प्रष्ठित करता है।
12. ज्ञानयोग एवं कर्मयोग दोनों ही मोक्ष कराते है। Contd....
No comments