भारतीय लोकतंत्र और मानवाधिकार
सभ्यता और संस्कृति की चिंतन धारा में मानव की अस्मिता, मानव गरिमा की सर्वोच्चता, मानवीय प्रतिष्ठा की अपरिहार्यता और मानव के सर्वांगीण विकास का भाव प्रकट हुआ। इस विश्वव्यापी और सार्वभौमिक अवधारणा से देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में मानव अधिकार के विभिन्न संदर्भ और आयाम भी दृष्टिगोचर हुए। मानव अधिकार वास्तव में ऐसे अधिकार हैं, जो प्रत्येक मानव को नैसर्गिंक रूप से प्राप्त होते हैं और उनके जीवन के विकास की प्रक्रिया को क्रियाशील बनाने के लिए आधारभूत होते हैं। ऐसे अधिकारों के उपयोग के लिए उचित सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश एवं परिस्थितियों का होना अनिवार्य है। यही मानव अधिकार व्यक्ति की सभी मूलभूत आवश्यकताओें की पूर्ति करते हैं। प्रसिद्ध विचारक लास्की ने अधिकारों का उल्लेख करते हुए लिखा है ‘‘अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता और ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नस्ल, जाति, धर्म, लिंग एवं रंग आदि के आधार पर बिना भेदभाव के मिलने चाहिए।‘‘
मावनाधिकार की अवधारणा का इतिहास बहुत पुराना है। यह सदियों के विकास का परिणाम है। आधुनिक इतिहास में मानव अधिकार की परिकल्पना के उद्भव का श्रेय ब्रिटेन में वर्ष 1215 के मैग्नाकार्टा को दिया जाता है। इसमें कहा गया है कि ‘‘किसी नागरिक को उस समय तक बंदी न बनाया जाए और न ही निर्वासित किया जाए, जब तक कि उसका अपराध सिद्ध न हो जाए।‘‘ ब्रिटेन में ही 1679 में बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम पारित किया गया जिसमें व्यवस्था की गई कि बिना अभियोग चलाए किसी भी व्यक्ति केा नजरबंद नहीं रखा जा सकता। 1689 में अधिकार पत्र पारित कराया गया जिसमें कहा गया था कि संसद में जनता के प्रतिनिधित्व को भाषण की स्वतन्त्रता होगी। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा में मानव अधिकारों का विशुद्ध वर्णन किया है। 04 जुलाई 1776 को स्वतन्त्रता की घोषणा करते हुए कहा गया कि, ‘‘हम इन सत्योें को स्वयं सिद्ध मानते हैं कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं। सभी मनुष्यों को ईश्वर ने कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किये हैं जिन्हें छीना नहीं जा सकता और इन अधिकारों में जीवन, स्वतन्त्रता और समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहने का अधिकार भी सम्मिलित है।‘‘
1789 की फ्रांसीसी क्रंाति में तत्कालीन राजा लुई 16वें को फाँसी पर चढ़ाकर गणतंत्र की स्थापना की गई। उस क्रांति में व्यक्ति की मुक्ति के लिए निम्नलिखित घोषणाएं की गई-
- स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व की घोषणा।
- लोकतंत्र एवं लोक प्रभुत्व के सिद्धान्त का समर्थन।
- राष्ट्रीयता का सिद्धान्त।
- नवीन अधिकारों (सम्पत्ति की सुरक्षा, स्वतन्त्रता, भाषण एवं लेख आदि) की घोषणा।
यद्यपि मैग्नाकार्टा, बंदी प्रत्यक्षीकरण, अधिकार पत्र, अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांस की क्रांति आदि के रास्ते से निकलकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते संयुक्त राष्ट्र संघ की उद्घोषणा के बाद मानवाधिकार सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुए।
26 जून 1945 को हस्ताक्षरित संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा मानवाधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्वीकृति की दशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जहाँ से एक जुट होकर संसार के सभी देश मानवीय गरिमा़, समानता और विश्वबंधुत्व की दिशा में एक होकर कार्य करने का संकल्प लेते हैं। वे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय समस्याओं के निराकरण एवं मानवाधिकार के माध्यम से आधारभूत मौलिक स्वतंत्रताओं की प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी सदस्य राष्ट्रों का आह्वान करते हैंं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के तीन वर्ष बाद 10 दिसम्बर 1948 को महासभा ने मानवाधिकार के सम्बन्ध में अंतर्राष्ट्रीय घोषणा की, जिसकी प्रस्तावना में स्पष्ट कहा गया है कि,श्स्वतंत्रता, न्याय एवं शांति की कल्पना ही विश्व मानव परिवार को प्राप्त मानव गरिमा, समान अनुल्लंघनीय अधिकार एवं समानता की स्वीकृति की आधारशिला है।श् इस घोषणा का प्रथम अनुच्छेद इस तथ्य को दुहराता है कि श्प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है और वह समान अधिकार और सम्मान का अधिकारी है। प्रत्येक मनुष्य समान रूप से विवेक एवं चेतनायुक्त है। अतः सभी को विश्वबंधुत्व की भावना से अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य करना चाहिए।श्
18वीं शताब्दी में दिए गए स्वतंत्रता, समानता एवं विश्वबंधुत्व के नारे को सन् 1948 में संयुक्त राष्ट्र की उद्घोषणा कोे न केवल स्वीकार किया वरन् उसमें मानवीय गरिमा तथा मानवाधिकार की अभिन्नता का समावेश भी किया। यही नहीं, मनुष्य और स्त्री तथा सम्पन्न और विपन्न के बीच भेदभाव को भी दूर करने का उद्घोष संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से किया गया। राष्ट्रीय सीमाओं को परे रखकर पूरे विश्व के प्रत्येक मनुष्य के लिए जीवन-स्तर सुधारने की दशा में प्रयास करते रहने के लिए संकल्प लिए गए। संयुक्त राष्ट्र संघ का घोषणा पत्र वास्तव में एक आदर्श शासन व्यवस्था की स्थापना के लिए नीति-निर्देशक तत्वों के रूप में प्रस्तावित है। मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के पीछे कुछ महत्वपूर्ण बुनियादी सिद्धान्त निम्नलिखित हैंः-
- सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र हैं और अधिकार एवं मर्यादा में समान हैं। उसमें विवेक और बुद्धि है, अतएव उन्हें एक-दूसरे के साथ भ्रातभावयुक्त व्यवहार करना चाहिए।
- प्रत्येक व्यक्ति बिना जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या सामाजिक उत्पत्ति जन्म या किसी दूसरे प्रकार के भेदभाव के इस घोषणा में व्यक्त किए हुए सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का पात्र है।
- प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार है।
- किसी व्यक्ति को दास नहीं बनाया जा सकता। इसकेसाथ ही दासता एवं दास व्यापार पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है।
- किसी भी व्यक्ति के साथ क्रूर एवं अमानवीय दण्ड प्रणाली निषिद्ध है। इसके साथ ही अपमान जनक व्यवहार भी प्रतिबन्धित है।
- प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह सर्वत्र कानून के अधीन व्यक्ति माना जाए।कानून या विधि के समक्ष सभी समान है तथा सभी को कानून का संरक्षण समान रूप से प्राप्त है।
- प्रत्येक व्यक्ति को संविधान या विधि द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को भंग करने वाले कार्योंं के विरूद्ध न्यायालयों में प्रभावशाली संरक्षण पाने का अधिकार है।
- किसी भी व्यक्ति को मनमाने तौर पर गिरफ्तार या देश से निष्कासित नहीं किया जा सकता।
- किसी भी व्यक्ति के एकांत, उसके कुटुंब, गृह या पत्राचार में मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा और न ही उसकी मान-मर्यादा या प्रतिष्ठा पर मनमाने तौर पर आघात किया जाएगा।
- प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अनुभूति तथा धर्म स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
भारतीय संस्कृति सार्वभौम सिद्धान्त ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ की प्रेणता रही है। समस्त भू-मण्डल के मानवों को एक ही परिवार का सदस्य माना गया है। हमारे वेदों, उपनिषदों, पुराणों, शास्त्रों एवं नीति ग्रंथों में संसार के समस्त प्राणियों में समानता के सिद्धान्त को अपनाने सम्बन्धी अनेक दृष्टान्तों का उल्लेख मिलता है। वैदिक संस्कृति में मानव अधिकार का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है-श्मानव स्वार्थ साधन में नहीं, परहित साधन में है। मानवता सह-अस्तित्व सिखाती है, वैमनस्य की भावना इसकी परिभाषा से परे हैं।श् हमारे पौराणिक गं्रथ इस बात के गवाह हैं कि वैदिक काल से ही हमारे यहाँ स्त्री एवं पुरूष को समान अधिकार प्राप्त हैं। वैदिक संस्कृति में शासक को प्रजा के प्रति जवाबदेह तथा उनके कष्टों का निवारण करना परम कर्तव्य माना गया है। निर्धारित नियमों और कानून के समक्ष समानता के सिद्धान्त की अवधारणा भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र रही है।
वर्तमान युग में संगठित रूप से सबसे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा वर्ष 1895 में मानव अधिकार की रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिसे होमरूल दस्तावेज के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसके अर्न्तगत प्रत्येक नागरिक के विचारों, निवास, सम्पत्ति, आवागमन एवं विधि के समक्ष समानता जैसे मौलिक अधिकारों पर बहस हुई, जो कि मूल रूप से मानव अधिकारों की अवधारणा ही थी। स्वाधीनता के पूर्व भारतीय लोगों ने ब्रिटिश नागरिकों की भांति अपने अधिकारों की मांग की और आन्दोलन भी किया।वर्ष 1925 मंे कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल का निर्माण ऐनी बेसेण्ट द्वारा किया गया जिसमें भारतीय जनता को मौलिक अधिकार देने की बात कही गई थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने वर्ष 1929 मंे लौहार अधिवेशन के तहत पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य बनाया। वर्ष 1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कराचाी अधिवेशन में मौलिक अधिकार का प्रस्ताव पारित किया, जिसमें राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक परिवर्तन आर्थिक स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण अधिकार शामिल थी। वर्ष 1935 के गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट मंे पहली बार एक भारतीय को जाति, धर्म व जन्म स्थान के आधार पर सम्पत्ति के अधिकार से वंचित न होने का अधिकार ब्रिटिश संसद ने दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वर्ष 1936 में सिविल लिबर्टीज यूनियन (सी.एल.यू) का गठन किया गया जिसमें मौलिक अधिकारों का विस्तार पूर्वक बताया गया था। इसके बाद 1945 में सप्रू समिति के प्रतिवेदन में भारतीय समाज के सभी वर्गों के लिए समानता के अलावा अन्य नागरिकों को राजनीतिक अधिकार देने का प्रस्ताव शामिल था। वर्ष 1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम मानवाधिकार संगठन बनाया गया था जिसका नाम पीपुल्स डेमोक्रेटिक राइट्स रखा गया। आपातकाल की समाप्ति के साथ ही यह संगठन भी निष्क्रिय हो गया।
वर्ष 1980 के दशक में अनेक संगठनों जैसे- लोकसत्ता, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, पीपुल्स यूनियन, कॉमनवेल्थ ह्नयूमन राइटस, इनिशियेटीव कॉमन कॉज, मजदूर किसान शक्ति संगठन द्वारा सामाजिक भेदभाव, बच्चो और महिलाओं के अधिकार, दलित अधिकार, जनजातियों के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, पर्यावरण का अधिकार, संपोषित विकास आदि मुद्दों पर नवीन आयाम देने का प्रयास किया गया। मानवाधिकार के इन सभी पहलुओं ने सामाजिक न्याय को जनसहभागिता, सकारात्मक कार्यकलाप तथा आर्थिक न्याय पर आधारित करके मानवाधिकारों का समग्र रूप प्रदान किया।
भारतीय संविधान में मानवाधिकारों के संरक्षण को लेकर उन सभी प्रावधानों को मान्यता दी गई है जो संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में अंकित है। साथ ही अपनी कुछ विशेष सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार शताब्दियों से पीड़ित-शोषित दुर्बल वर्गों के उत्थान तथा समान सामाजिक स्तर बनाने की उन्हें अतिरिक्त सुविधाएं भी दी गई हैं।
भारतीय संविधान की उद्देशिका उसके लक्ष्य (उद्देश्य) को भी प्रकट करती है। हमारे संविधान का लक्ष्य है-
- सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय उपलब्ध कराना।
- विचार, मत, विश्वास तथा धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करना।
- पद और अवसर की समानता प्रदान करना।
- व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता स्थापित करना।
भारतीय संविधान की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि नागरिकोें के मौलिक अधिकार हैं। मौलिक अधिकार (भाग-iiv)का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। नागरिकोेें के मौलिक अधिकार को सात वर्गो में वर्गीकृत किया गया हैः-
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- सम्पत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 30)
- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- सम्पत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31)
(नोटः- 44वाँ सवैधानिक संशोधन अधिनियम 1978 के तहत अब सम्पत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं रह गया है।)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
उपरोक्त मौलिक अधिकारों के हनन होने पर अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और अनुच्छेद-226 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।
राज्य के नीति निर्देशक तत्व जिनका उल्लेख (भाग-प्ट) के अनुच्छेद 36-51 तक में किया गया है।इसका अवलोकन करने के पश्चात् हम पाते हैं कि येे नागरिकों के अधिकारों की ओर संकेत करते हैं। राज्य के नीति निर्देशक तत्व के अर्न्तगत सरकार पर यह दायित्व डाल दिया गया है कि वह सामाजिक कल्याण जैसे- शिक्षा, नियोजन, स्वास्थ्य आदि मूलभूत सामाजिक मूल्यों का प्रर्वधन और अभिप्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहें। जिससे इन सामाजिक मूल्यों के फलस्वरूप एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके।
भारतीय प्रजातंत्र में संवैधानिक सुरक्षा होते हुए भी व्यवहार में कार्यपालिका, सबल सामाजिक एवं आर्थिक व्यक्तियों द्वारा प्रायः निर्बल व्यक्तियों के मानवाधिकार का हनन होता रहता है। आम आदमी के भारतीय संविधान द्वारा अधिकार सुनिश्चित व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा से सम्बन्धित मूलभूत अधिकारों के उपयोग को सुनिश्चित कराने और इन अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए संसद द्वारा 1990 में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग व राष्ट्रीय महिला आयोग तथा 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग व राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग का गठन किया गया। इसके अलावा भारत के सभी राज्यों में मानवाधिकार आयोग की भी व्यवस्था की गई है।
मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 12 के अनुसार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग निम्नलिखित कार्य सम्पादित कर सकता हैः-
- मानवाधिकार के उल्लंघन या लोकसेवकों द्वारा इन तरह के उल्लंघन को रोकने में लापरवाही बरते जाने के बारे में शिकायतें प्राप्त होने पर या अपनी पहल पर जाँच करना।
- किसी न्यायालय के समक्ष लंबित मानवाधिकार के उल्लंघन के अभिकथन वाली किसी कार्यवाही में उन न्यायालय की अनुमति से हस्तक्षेप करना।
- किसी जेल या राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन किसी संस्था का परिभ्रमण करना जब कि वहां व्यक्तियों को निरूद्ध किया गया हो एवं ऐसे भ्रमण का उद्देश्य जीवन सम्बन्धी दशाओं का अध्ययन करना हो। मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु संविधान या विधि द्वारा प्रदत्त सुरक्षा व्यवस्थाओं का पुनर्निरीक्षण करना तथा उनके प्रभावी रूप से अनुपालन हेतु उपायों की भी संतुष्टि करना।
- मानव अधिकारों के क्षेत्र में अनुसंधान करना तथा शोध कार्यों को बढ़ावा देना।
- समाज के विभिन्न वर्गों को मानवाधिकारों से परिचित कराना।
- मानवाधिकारों से सम्बन्धित अंतर्राष्ट्रीय संधियों एवं लेखों का अध्ययन करना तथा उसे लागू करने के लिए संस्तुति करना।
- समाज के विभिन्न वर्गों में मानवाधिकार शिक्षा को बढ़ावा देना और इन अधिकारों के रक्षा उपायों के प्रति प्रकाशन, संचार माध्यम, संगोष्ठी और अन्य साधनों से जागृति लाना।
मूल्यांकन:-
मेनका गॉधी बनाम भारत संघ (1979) में उच्चतम न्यायलय ने मानव अधिकार संरक्षण की दिशा को नया आयाम देते हुए कहा कि ’’मौलिक अधिकार इस देश की जनता द्वारा वैदिक काल से संजोये गए आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे व्यक्ति की गरिमा का संरक्षण करने और ऐसी दशायें बनाने के लिए परिकल्पित है जिनमें हर एक मानव अपने व्यक्ति का पूर्ण विकास कर सके। वे मानव अधिकारों के आधारभूत ढॉचे के आधार पर गारण्टी का ताना-बाना बुनते हैं और व्यक्तिगत स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों में अतिक्रमण न करने का राज्य पर नकारात्मक बाध्य अधिरोपित करते हैं।’’
मानव अधिकार की रक्षा हेतु राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए अनेक कानून व नियमों के बावजूद आज भी मानव अधिकार की रक्षा एक गंभीर बनती जा रही है। मानवाधिकार की रक्षा तभी हो सकती है जब उसके लिए उपयुक्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियॉ हो। कानूनों एवं नियमों को गंभीरता से सोचने एवं विचारने का अब समय निकट ही नहीं आ गया बल्कि इसको अब अमल करने की महती आवश्यकता है। भारत में मानवाधिकार भले ही दो दशक पुराना हो गया है पर अभी भी शैशवावस्था में ही है।
मानव का अधिकार सुरक्षित रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि जनता को शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन लाया जाए, जिससे उनमें जागरूकता की भावना का प्रसार होगा। इसके लिए जनसंचार सशक्त माध्यम है। आज जनसंचार के कारण ही मानव अधिकार के बहुत सारे संवेदनशील मामले सामने आए हैं। मानवाधिकारों का संरक्षण तभी संभव होगा जब समाज के सभी वर्ग इसके लिए कार्य करे। दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन जब तक जनता का सहयोग प्राप्त नहीं करेगा तब तक वह किसी भी प्रकार से अपने कार्यों में सफल नहीं होगा। इसके लिए पुलिस प्रशासन को अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। उसे अपने व्यवहार से यह साबित करना होगा कि वास्तविक रूप मंे पुलिस प्रशासन जनसेवा में तत्पर है। साथ ही साथ न्यायपालिका पर लम्बित प्रकरणों का बोझ इस प्रकार हत्तांतरित करना होगा कि वह गरीबों के मौलिक अधिकारांे की संरक्षक की भूमिका सफलता पूर्वक निभा सके।
वास्तव में समाज के प्रत्येक क्षेत्र के विकास के लिए मानवाधिकारों का उल्लंघन रोका जाना आवश्यक है तभी समाज में सामाजिक न्याय, असमानता, गरीबी जैसी बुराइयों को दूर किया जा सकता है।सही मायने में भारतीय लोकतंत्र में मानवाधिकार तभी सुरक्षित रह सकता है जब हर नागरिक यह संकल्प ले कि न तो वह किसी का शोषण करेगा और न ही शोषण सहेगा क्योंकि अपमान और अत्याचार करना एवं सहना दोनों ही अनुचित है। कहने का अभिप्राय है कि प्रत्येक भारतीय एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान एवं सुरक्षा करें।ऋगवेद में कहा गया गया है:-
सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्रााणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःखभाक् भवेत्।।
अर्थात् सभी लोग सुखी रहें। सभी लोग निरोगी हों। सभी लोग एक-दूसरे का कल्याण सोचें। कभी भी किसी को कोई दुख न हों। यही धारणा मानवाधिकार को सशक्त बनाते हैं।
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