कहीं आपका बच्चा आडिटरी डिसार्डर का शिकार तो नहीं?


क्या आपका बच्चा आवाज पर, खासकर आपकी आवाज पर नियमित प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता?
क्या आपके बच्चा अचानक तेज शोर या आवाज जैसे कुत्ते का भौंकना या किसी बर्तन के गिरने से अचंभित तो नहीं होता?
क्या आपका बच्चा जब आपको देख न रहा हो तो आपकी आवाज पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता?
क्या आपका बच्चा अपने आप ही पर्याप्त आवाजें नहीं निकालता?
क्या आपके बच्चे को सिर में चोट, मेनिनजाइटिस, दौरे पड़ना, कान में इंफेक्शन क्रानिक कोल्ड व परफोर्टिड ईयर ड्रम की कभी शिकायत रही है?
अगर इन प्रश्नों के उत्तर ’हां’ में हैं तो आपके बच्चे को आडिटरी डिसार्डर यानी सही सुनाई न देने की समस्या हो सकती है। गौरतलब है कि भारत में 6 बरस के कम से कम तीन लाख बच्चों को सुनने की समस्या है। लगभग 21 हजार बच्चों को दोनों कानों से सुनाई न देने की गंभीर समस्या है, लेकिन घबराने की जरूरत नहीं है। सही समय पर मालूम हो जाने से तकरीबन 92 प्रतिशत रोगियों का इलाज सफलतापूर्वक हो सकता है।
अगर आपको जरा भी शक हो तो अपने नवजात शिशु के दो साधारण स्क्रीनिंग टेस्ट करा लें, खासकर 6 से 9 माह की उम्र में। जितनी जल्दी समस्या को जान लेंगे तो इलाज भी हो जाएगा और आपका बच्चा बाद में बहरेपन से बच जाएगा। डाक्टरों के अनुसार अगर जेनिटिक या अन्य कारणों से बच्चा जन्म के समय बहरा है और यह बात उसके 2 वर्ष का होने से पहले मालूम हो जाती है तो उपचार से बाद के दौर में पूर्व बहरेपन से उसे बचाया जा सकता है।
इस सिलसिले में बच्चांे के जो दो स्क्रीनिंग टेस्ट होते हैं उनमें एक है आडिटरी ब्रेन स्टेम रिस्पांस और दूसरा है आटोएकोस्टिक एमिशन टेस्ट (ओएई)। पहले टेस्ट में सेंसर्स सिर-गर्दन पर लगा  दिए जाते हैं ताकि आवाज की प्रतिक्रिया में दिमाग की गतिविधि का स्तर मापा जा सके। दूसरे टेस्ट में मुलायम रबर प्रोब कान के अंदर रख दी जाती है ताकि स्टिमुल्स पर कान की प्रतिक्रिया को मापा जा सके। सरकारी अस्पतालों में ये टेस्ट मुफ्त होते हैं। प्राइवेट कराने पर हजार रूपए तक का खर्च आ जाता है।
अगर बचपन में कम सुनने या श्रवण बाधा के बारे में मालूम हो जाए, तो सुनने की क्षमता हाई-पावर्ड डिजिटल हियरिंग एड्स  और कोशिलर इम्प्लांटस जैसी तकनीकों के जरिए भी लौटाई जा सकती है। यह मैकेनिकल यंत्रा है जो डिजिटली कोडेड इलेक्ट्रिकल सिग्नलस सीधे आडिटरी सिस्टम में ट्रांसमिट करते हैं। यह अलग बात है कि इम्प्लांट्स लगवाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। अगर हियरिंग एड्स नाकाम हो जाएं तब डाक्टरों, आडियोलाजिस्ट और काउंसलर की राय लेकर ही इम्प्लांट्स के विकल्प को अपनाना चाहिए।
अफसोस की बात है कि भारत में नवजात शिशु के स्क्रीनिंग टेस्ट बहुत देर बाद कराए जाते हैं। ज्यादातर अभिभावकों को खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अपने बच्चे की आडिटरी समस्या का ज्ञान उस समय होता है जब वह तीन साल का हो जाता है। क्योंकि  इस सिलसिले में समय महत्वपूर्ण है, इसलिए इसके गंभीर प्रभाव होते हैं। अगर ज्यादा समय तक बच्चा बिना सुने रहेगा तो उसके लिए बोलना-सीखना और कठिन हो जाएगा। साथ ही आडिटरी राह को सक्रिय रखना भी महत्वपूर्ण है वरना वह काम नहीं करेगी।
लगभग 50 प्रतिशत बहरापन जेनेटिक है। इस समस्या से ग्रस्त माता पिता की जीन उनके बच्चों में आ जाती है। इनमंे से कुछ बच्चे ऐसे होते हैं कि वह आहिस्ता आहिस्ता अपने सुनने की क्षमता खोने लगते हैं। बाकी 50 प्रतिशत बच्चे जो बहरे होते हैं, वे मां के पेट में से मां से मिले रोग जैसे साइटोमेगेलोवाइरस, फिटल रूबैला, इनफैंट मेनिनजाइटिस और जन्म त्राुटियां जैसे ट्रामा, चोट या फ्रैक्चर के कारण होते हैं।
अभिभावकों को यदि यह मालूम हो जाए कि उनका बच्चा बहरा है, तो उन्हें गहन काउंसलिंग के लिए जाना चाहिए। काउंसलर उनको बताएगा कि बच्चे को किस तरह स्पीच व भाषा से प्रेरित किया जाए। ज्यादातर मामलों में समस्या का देर से पता चलने पर, बच्चों को विशेष स्कूल में भर्ती करा दिया जाता है लेकिन उद्देश्य यह होना चाहिए कि बच्चे को स्पीच व टीचर के होंठ पढ़ना सिखा दिया जाए ताकि वह सामान्य स्कूल में तालीम हासिल कर सके।

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