कानून से ऊपर कौन ?
जी हां, बड़ा अजीब सवाल है लेकिन इसका जवाब भी कम अजीब नहीं है। भारतीय संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जिनके अनुसार कतिपय विशिष्ट व्यक्तियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्य न्यायाधीश, उपराज्यपाल तथा राजदूत जैसे पदों पर आसीन लोग हैं। इन पदों पर आसीन व्यक्ति से भी कोई भूल या आपराधिक कार्य होता है तो पहले ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक पद से हटाये जाने की प्रक्रिया होती है, पद से वंचित होने के बाद ही कानूनी कार्यवाही आरंभ की जा सकती है।
लेकिन कानून की रक्षा करने वाले तथा नागरिकों को न्याय उपलब्ध कराने वाला न्यायाधीश जब स्वयं ही अवांछित कार्यों में संलग्न हों तो रास्ता क्या है? ऐसी स्थिति में महाभियोग के जरिये उन्हें पद से हटाया जा सकता है। इस प्रकार का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 217 (1) तथा 124 (4) में है जिसके अनुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाये जाने की प्रक्रिया का आरंभ संसद द्वारा किया जा सकता है। महाभियोग के लिए राज्यसभा के 50 अथवा लोकसभा के 100 सदस्यों की ओर से याचिका प्रस्तुत की जाती है।
संसद-सदस्यों द्वारा ऐसी याचिका दिये जाने के उपरांत एक जांच समिति का गठन होता है जो न्यायाधीश के विरूद्ध तथ्यों के आधार पर एक आरोप पत्रा तैयार करती है। यह समिति आरोपी न्यायाधीश को भी अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देती है। इसके बाद समिति अपनी तथ्यात्मक रिपोर्ट संसद को देती है।
इस रिपोर्ट के आधार पर संसद विचाराधीन न्यायाधीश पर महाभियोग की चर्चा के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आयोजित करती है। पक्ष और विपक्ष में चर्चा के बाद संयुक्त सत्रा में उपस्थित सदस्यों द्वारा मतदान होता है। महाभियोग का प्रस्ताव पारित होने के लिए सदन में उपस्थित कम से कम दो तिराई सदस्यों की सहमति आवश्यक है, अन्यथा इस लंबी प्रक्रिया के बाद भी महाभियोग का प्रस्ताव पास नहीं हो सकेगा।
भारतीय संविधान में अवांछित आचरण वाले न्यायाधीशों को हटाये जाने के लिए सिद्धांत रूप में उत्तम प्रक्रिया का प्रावधान है किंतु व्यवहारिक रूप में यह प्रभावी नही ंमानी जा सकती है। यह तथ्य पिछली सदी में हुई कुछ घटनाओं से उजागर होता है।
इस संदर्भ में बहुचर्चित मामला सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी का है। सन् 1991 में इस व्यक्ति पर न्यायाधीश रहते हुए महाभियोग चलाया गया था। उन पर हरियाणा तथा पंजाब उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अवांछित आचरण तथा भ्रष्टाचार का मामला बना था। संसद में नियमानुसार महाभियोग की प्रक्रिया पूरा की गई। दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में हो रहे मतदान में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने मतदान नहीं किया। फलस्वरूप आरोपी न्यायाधीश वी. रामस्वामी बच निकले। अपनी लंबी सेवा अवधि के आधार पर वे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बनने के बाद रिटायर हुए। भारत की न्यायिक सेवा के इतिहास में यह अजीबोगरीब दास्तान है।
भारत में नागरिकों को न्याय प्रदान करने तथा सुशासन बनाये रखने के उत्तरदायी न्यायाधीशों के आचरण ही भ्रष्ट होने लगें तो यह लोकतंत्रा के लिए खतरे की घंटी है। अब देश के न्यायविद् तथा लोकतंत्रा में विश्वास रखने वाले इस गंभीर समस्या पर चिंतित हो उठे हैं लेकिन इस चिंता के बावजूद नये साल में न्यायिक अधिकारियों को लेकर अनेक प्रकार की अप्रत्याशित घटनायें हो रही हैं। उदाहरण के लिए कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सोमित्रा सेन का मामला आया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्ण ने देखा कि न्यायाधीश सौमित्रा सेन ने सरकारी धन की हेराफेरी की है। परिस्थितियों को देखते हुए और प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मुख्य न्यायाधीश ने कोलकाता के न्यायाधीश को इस्तीफा देने को कहा पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया।
ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को विवश होकर स्वनामधन्य सौमित्रा सेन पर महाभियोग चलाने के लिए स्वीकृति देनी पड़ी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए राज्यसभा के 58 सांसदों ने हस्ताक्षर कर सदन के अध्यक्ष को याचिका दे दी है और अनुरोध किया है कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए शीघ्र कार्यवाही आरंभ हो।
कानून के ऊपर हैं?
सरकारी अधिकारियों, जनसेवकों विधायकों तथा सांसदों को जनता के सामने निर्मल छवि बनाये रखने के लिए नियम अधिनियम बनाये जाते हैं। इसी संदर्भ में सूचना के अधिकार अधिनियम के अनुसार न्यायाधीशों की संपत्ति का विवरण मांगा गया। न्यायाधीशों ने अपने लिए इसे उचित नहीं माना। जब इसके लिए मुख्य न्यायाधीश से गुहार लगायी गई तो आश्चर्यजनक रूप में उन्होंने भी कहा कि संपत्ति की घोषणा के नियम की बाध्यता न्यायाधीशों के लिए नहीं है। वे स्वयं ऐसा करने के लिए स्वतंत्रा हैं, किंतु उन्हें बाध्य नहीं किया जा सकता है।
विडंबनापूर्ण स्थिति तो तब हुई जब कि वर्तमान सरकार की ओर से कानून मंत्राी जो स्वयं एडवोकेट रह चुके हैं तथा निर्मल छवि रखते हैं। कह दिया कि सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत जजों को उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
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